मिर्ज़ा ग़ालिब : इश्क में निकम्मे हुए ग़ालिब, वजीफे के पैसों से पीते थे शराब
Dhanaoura times news
इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना आदमी हम भी थे काम के”
वरना आदमी हम भी थे काम के”
जी हाँ ऊपर लिखी पंक्तियाँ दुनिया के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की हैं. 27 दिसम्बर को शेर-ओ-शायरी की दुनिया के बादशाह, उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ का 220वां जन्मदिवस है. इस मौके पर गूगल ने एक खास डूडल बनाकर उनको सम्मान दिया है. बता दें मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ग़ालिब था. इस महान शायर का जन्म 27 दिसंबर 1796 में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में हुआ था.
मिर्ज़ा ग़ालिब का जीवन ग़रीबी में ही बीता थोड़ी-बहुत आमदनी मुशायरों से या वजीफों से हो जाती थी लगातार कमाई का कोई जरिया नहीं था. एक बार ऐसा हुआ कि ग़ालिब वजीफे से मिली धनराशी से शराब खरीदकर घर ले आये. यहाँ जब उनकी पत्नी देखा तो जमकर खरी खोटी सुनाई. पत्नी ने कहा कि घर में खाने को दाना नहीं और आप वजीफे के पैसों से शराब लेकर आ गये हैं,रोटी का इंतजाम कैसे होगा. इसपर ग़ालिब का भी जवाब बड़ा निराला था. ग़ालिब ने कहा कि बेग़म रोटी देने वला तो ऊपर वाला है लेकिन शराब देने वाला कोई नहीं है. जवाब सुनकर पत्नी भी अपना माथा पीटकर रह गई. बहुत कम लोगों को पता होगा कि ग़ालिब शेरो शायरी करने के लिए शराब का सेवन करते थे.
“शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर,
या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा नहीं।”
या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा नहीं।”
उपरोक्त लिखी ग़ालिब की इन पंक्तियों के पीछे एक बड़ा किस्सा छिपा हुआ है जो शायद हर किसी को न मालूम हो-
दरअसल एक बार ऐसा हुआ कि ग़ालिब के पास एक भी पैसा न रहा. तब वे गली कासिमजान, बल्लीमारान वाले अपने मकान में रहते थे. घर में खाने को दाना नहीं था. वे उन दिनों अपना फारसी दीवान लिख रहे थे और नए शेरों की रचना के लिए शराब की सख्त जरूरत थी उन्हें. मजबूर हो कर जनानखाने में गए जहां उनकी धर्म पत्नी उमराव बेगम रहती थीं. उनसे इधर-उधर के बहाने बनाकर पैसे देने की विनती की. मगर उन्होंने साफ मना कर दिया. फिर ताना देते हुए बोलीं, मिर्जा खुदा के दरबार में सच्ची दुआ करो और नमाज पढ़ो तो मुराद पूरी होगी. गालिब उन्हें खुश करने के लिए नमाज के पाक-साफ कपड़े पहने और जामा मस्जिद की ओर निकल पड़े. रास्ते में अनेकों व्यक्ति उन्हें मिले और यह देख कर चकित हुए कि सूर्य पश्चिम से कैसे निकला अर्थात गालिब जामा मस्जिद की ओर कैसे? वे तो रोजा और नमाज से दूर ही रहा करते थे.
मस्जिद पहुंचकर ग़ालिब ने नामज़ पढ़ी और उसके बाद वह घुटनों पर सिर झुका कर बैठ गए कि कब खुदा का हुक्म हो और शराब की बोतल उनके चरणों में गिरे.
एक शागिर्द उन से मिलने को उनके घर गए हुए थे. उन्हें अपने उस्ताद गालिब से अपनी शायरी ठीक करानी थी. उमराव बेगम ने बताया कि उस्ताद तो आज जामा मस्जिद गए हैं नमाज पढ़ने. शागिर्द को भी आश्चर्य हुआ कि गालिब और जामा मस्जिद! उसने जब पूरा हाल सुना तो तुरन्त बाजार गया और शराब की एक बोतल खरीदी. उसे कोट के भीतर छिपा कर वह मस्जिद गया और गालिब को आवाज दी. पहले तो उन्होंने अनसुनी कर दी, मगर दूसरी बार जब शागिर्द ने पुकारा तो देखा कि वह कोट की अंदर की जेब की ओर इशारा कर रहा था. उस्ताद यह देख कर जूतियां उठाकर चल पड़े.
गालिब का घर हकीमों वाली मस्जिद के नीचे था और लोग प्रायः उन्हें टोका करते थे कि मस्जिद के ठीक जेरे साया (नीचे) बैठकर वे शराब न पिएं. उसी पर गालिब ने शेर पढ़ा था-
“जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो!”
या वो जगह बता जहां खुदा न हो!”
मिर्ज़ा ग़ालिब : इश्क में निकम्मे हुए ग़ालिब, वजीफे के पैसों से पीते थे शराब
Reviewed by Ravindra Nagar
on
December 27, 2017
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